दो प्रोटोकाल, एक महाकाल
मंगल.कर्ता महाकाल
उज्जैन। मंदिर में दो नाम गूंजते हैं एक महाकाल दूसरा प्रोटोकाल। महाकाल एक है। प्रोटोकाल दो। एक जिला प्रशासन का और एक मंदिर प्रशासन का। दो प्रोटोकाल से महाकाल को दिक्कत नहीं है, भक्तों को है। जिला प्रशासन के प्रोटोकाल की अपनी सीमाएं हैं। संख्या निर्धारित है। इतने ही लोगों को नंदीहॉल तक भेजेंगे। मंदिर प्रशासन की सीमाएं महाकाल की तरह ही अनंत हैं। कारण शिव के गणों में से एक कुबेर देव जो देवताओं के कोषाध्यक्ष कहे जाते हैं।
कुबेर और लक्ष्मी के प्रभाव से मंदिर प्रशासन का प्रोटोकाल फलफूल रहा है। एक जिले में एक प्रोटोकाल होना चाहिए लेकिन समस्या ये है कि अगर वो कलेक्टोरेट के अधीन हो तो कई यजमानों को नंदीहॉल तक जाने का मौका ही नहीं मिलेगा। जो भक्त यजमान हो जाते हैं वो वीआईपी हो जाते हैं। फिर उनके बैठने आने.जाने और सुविधापूर्वक पूजन-अभिषेक के लिए व्यवस्थाएं होने लगती हैं।
महाकाल वीआईपी हैं तो यजमान वीवीआईपी क्योंकि वो सुविधापूर्वक दर्शन.पूजन के लिए व्यवस्था कराने वाले को लक्ष्मी दर्शन कराते हैं। जो महाकाल के आंगन में व्यवस्थाकर्ता घूम रहे हैं। उन्हें बाबा से ज्यादा लक्ष्मी और कुबेर दर्शन प्रिय है। सावन मास बस आने को ही है। मंदिर में लक्ष्मी दर्शन कराने वालों की बाढ़ आएगी। जिससे व्यवस्थाकर्ता सिर से पैर तक सराबोर होने की उम्मीद में हैं। होना ये चाहिए कि महाकाल मंदिर और जिला प्रोटोकाल एक हो जिससे वीवीआईपी की संख्या सीमित हो। नंदी महाराज को भी कष्ट ना हो और उनके पीछे लगे बैरिकेड्स में खड़े होकर चंद सेकेंड्स के लिए महाकाल को निहारने वाले भक्तों को भी समस्या ना हो।
लेकिन हां जिला प्रशासन को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि जिसके हाथ में भी अधिकार सौंपे जाएं वो उसका दुरुपयोग ना करे जिससे उसे प्रोटोकाल से हटाकर मूल विभाग में भेजना पड़े।
विकास पुरुष सारी व्यवस्थाओं से परिचित हैं। सारी परिस्थितियों से भी वाकिफ हैं। अब वो कौन से प्रोटोकाल रखना चाहते हैं और किसे ध्वस्त करना। ये उनके विवेक पर निर्भर करता है।