परंपरा बदलने की परंपरा को कायम रखेंगे विकास पुरुष
उज्जैन। सावन मास में बमुश्किल 25 दिन हैं। 22 जुलाई को पहली बार राजाधिराज महाकाल प्रजा का हाल जानने नगर भ्रमण पर निकलेंगे। पिछले कुछ सालों में महाकाल की सवारियों में जैसा जनसैलाब उमड़ रहा है। उससे हर एक को महाकाल की पालकी के सुलभ दर्शन में असुविधा है। कुछ सालों पहले मांग उठी थी कि अब महाकाल की पालकी को चलित मंच पर रखकर नगर भ्रमण पर निकाला जाए जिससे दूर.दराज से आए श्रद्धालुओं को भीड़ के कारण बिना दर्शन के निराश ना लौटना पड़े।
विरोध हुआ पुरातनपंथियों ने परंपरा टूटने की दुहाई दी। कुछ ने तो महाकाल के क्रोध तक से भी डराया। नतीजा ये हुआ कि चलित मंच का प्रस्ताव फाइलों तक भी ना चल पाया। मगर अब परिस्थितियां बदल गई। महाकाल महालोक के बनने के बाद से आम दिनों में जो भीड़ पडऩे लगी है उससे सावन में कितने लोग होंगे ये अनुमान लगाया जा सकता है। तब परंपरा नहीं बदली गई लेकिन अब समय की मांग भी है और उम्मीद भी। उम्मीद इसलिए क्योंकि शहर के विकास पुरुष डॉ. मोहन यादव अब मुख्यमंत्री हैं। डॉ. यादव पुरानी परंपराओं को तोड़कर नए रवायतों को लाने में कितने माहिर हैं इससे उज्जैनवासी भलीभांति परिचित हैं।
मुख्यमंत्री बनने के बाद उज्जैन में रात ना गुजारने की मुख्यमंत्रियों की परंपरा को उन्होंने तोड़ दिया। तर्क भी गजब दिया कि हम महाकाल के बेटे हैं, सेवक हैं। महाकाल हमारा बुरा नहीं करेंगे। ऐसी और भी कई परंपराओं की लिस्ट है। तो इस बार चलित मंच पर बाबा महाकाल की पालकी रखने की बात भी सच होती दिख रही है। जो विरोध में हैं उनका तर्क है कि पालकी में नगर भ्रमण पुरातन परंपरा है। इसे तोडऩा ठीक नहीं। सवारी का स्वरूप बिगड़ जाएगा। पालकी पुरातन है। क्योंकि पुरातन काल में भ्रमण के तीन ही साधन ज्यादातर हुआ करते थे। घोड़ों से जुता रथ, हाथी की सवारी या कहारों के कंधों पर उठाई जाने वाली पालकी। अब जबकि हमारे पास आधुनिक साधन हैं। सरकार भी सक्षम है तो क्यों सवारी के स्वरूप को अपग्रेड ना किया जाए।
क्या हमने मंदिर को अपग्रेड नहीं किया। बुरा मत मानिए लेकिन महाकाल मंदिर को सुविधाओं के लिए अपग्रेड करने के नाम पर इतने प्रयोग किए जा चुके हैं कि अब सिर्फ ज्योतिर्लिंग को गर्भगृह से उखाड़कर बाहर लाना ही शेष बचा है। मंदिर के पुरातन स्वरूप से जब छेड़छाड़ कर उसे बदल दिया गया तो सवारी में एक बदलाव से कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा। जिस तरह की भीड़ सवारियों में जुट रही है नई व्यवस्था जरूरी है। समय की मांग है।
जो विद्वान पंडे.पुजारी परंपराओं की दुहाई देते फिर रहे हैं वे ही रोज सुबह मंदिर की परंपराओं की धज्जियां उड़ाते हैं। इस पर किसी का ध्यान नहीं गया आज तक। किसी का नहीं मतलब किसी का भी नहीं। कौन सी परंपरा। हम बताते हैं। महाकाल को जब रोज सुबह भस्म चढ़ती है तब महिलाओं को घूंघट निकालने को कहा जाता है क्योंकि परंपरा है। नियम है। लेकिन रोज मंदिर में जब भस्म चढ़ रही होती है कई पुजारी उसके वीडियो बना रहे होते हैं। दुनिया रोज महाकाल को भस्म चढ़ते देख रही है। बस मंदिर में जो महिलाएं आती हैं उन्हें भस्म चढ़ते देखने की अनुमति नहीं है। वीडियो में खुद पंडे-पुजारी ही ये लाखों महिलाओं को दिखा रहे हैं। अब दीजिए परंपरा की दुहाई।
बात नियम की है तो जिस मंदिर में श्रद्धालुओं का मोबाइल ले जाना प्रतिबंधित है वहां सारे पंडे.पुजारी ना सिर्फ मोबाइल गर्भगृह तक ले जा रहे हैं बल्कि इंस्टाग्राम सहित सारे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर रील्स बनाकर अपनी दुकानें चमका रहे हैं। तब परंपराए नियम और कायदे किसी को दिखाई नहीं देते। मुफ्त भस्मारती पर फीस रख दी उसके बावजूद भी हर महीने कोई ना कोई पुजारियों से जुड़ा आदमी ही भस्मारती के लिए श्रद्धालुओं से पैसे ऐंठते पकड़ा जाता है। तब परंपराएं और नियम कहां रह जाते हैं।
परंपराएं निभानी जरूरी हैं हम इसका समर्थन भी करते हैं। लेकिन परंपराओं के नाम पर नाटक ना हो। जो परंपराएं चाहते हैं वे पहले खुद में परंपराओं के लिए सम्मान जगाएं। शेष महाकाल की इच्छा। उन्हें जो कराना होगा वे स्वयं करा ही लेंगे।