50 लाख में 1500 डमरू बजाकर रिकॉर्ड बनेगा, फिर रिकॉर्ड का ही डमरू बजेगा
उज्जैन। महाकाल की सवारी में सबसे बड़ा आकर्षण क्या है? खुद महाकाल और उनकी पालकी। लेकिन मजेदार ये है कि महाकाल को छोड़कर सवारी के बाकी स्वरूप पर फोकस है। कैसे नित नए प्रयोग किए जाएं। पिछली सवारी में पुलिस बैंड था, अगली सवारी में डमरू बजेंगे। डमरू भी कोई ऐसे-वैसे नहीं, पूरे 50 लाख के। जी हां, 50 लाख के डमरू। सोने-चांदी के बने नहीं, सामान्य ही, जैसे अभी भी सवारी में बज रहे हैं। फिर इनमें ऐसा क्या है जो इतने महंगे हैं।
महंगा है वो रिकॉर्ड जो इन 1500 डमरूओं को एक साथ बजाने पर बनेगा। गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में इसे शामिल किया जाएगा। ये डमरू गिनीज बुक के कारण 50 लाख के हैं। अंदरखाने की खबर है कि कोई 24 लाख तो सिर्फ गिनीज वालों की फीस है। फिर बाकी खर्चा उनकी टीम के आने जाने और ठहरने का, कुछ लाख का खर्च बजाने वालों का।
मजेदार है ना, एक रिकॉर्ड के लिए एक साथ 1500 डमरू बजाए जाएंगे फिर अगले कुछ हफ्तों तक सरकार से लेकर प्रशासनिक अमला और पुजारियों से लेकर मंदिर प्रशासन तक सब इसी रिकॉर्ड का डमरू बजाएंगे। मतलब अब महाकाल की सवारी आस्था से ज्यादा रिकॉर्ड का विषय हो गई है। पूरी मशीनरी इस बात में लगी है कि कैसे सवारी के स्वरूप को भव्य किया जाए। जैसे मंदिर को भव्य बनाया है। ये अलग बात है कि पालकी के दर्शन की सुविधा के लिए जब उसे चलित मंच पर रखने की बात हुई तो सबकी भृकुटियां तन गई क्योंकि परंपरा टूट जाती।
जैसे मंदिर के पुरातन स्वरूप को 'विकसित' करके उसे आधुनिक बना दिया, वैसे ही अब सवारी टारगेट पर है। महाकाल के दर्शन और सवारी दोनों ही आस्था, विश्वास और भक्ति का मामला है, सुविधाओं के नाम पर कुछ भी करें, परंपराएं बदल दें, स्वरूप बिगाड़ दें, सब चलेगा।
ये भी विडंबना है कि सवारी को भव्य स्वरूप देने में लगे लोगों ने इस बात को लगभग नजरअंदाज कर दिया कि महाकाल की सवारी से पहले हू-ब-हू महाकाल की पालकी जैसी पालकी निकाल दी गई। लोग कन्फ्यूज होते रहे। स्थितियां बिगड़ती रही। प्रशासन ने नकली पालकी निकालने वाले को पकड़ा और समझा-बुझाकर छोड़ दिया। मतलब कल से कोई भी अपनी नई सवारी निकालना शुरू कर दे और प्रशासन समझाइश देता रहे।
खैर, मसला ये है कि एक रिकॉर्ड के लिए 50 लाख उड़ा दिए जाएंगे। सवाल ये भी है कि पैसे देगा कौन? मंदिर की दान राशि तो इस काम में उपयोग कर नहीं सकते। प्रशासन के पास रिकॉर्ड बनाने का कोई पैसा नहीं होता। सरकार के बजट में गिनीज बुक के लिए किसी फंड का प्रावधान नहीं होता, तो पैसे देगा कौन, कहां से आएंगे, कौन जुटाएगा, ऐसे कई सवाल हैं।
तो, अब डमरू तो बजेगा क्योंकि इसका बिगुल तो फूंक दिया गया है। महाकाल से ज्यादा बड़ा आकर्षण डमरू में होगा। जय महाकाल ...