महापौर की 'प्रतिमा' में भाजपा का दर्प-दर्शन

महापौर की 'प्रतिमा' में भाजपा का दर्प-दर्शन

ज्योतिर्लिंग भगवान श्री महाकालेश्वर के गर्भगृह में जलाधारी से सटकर ढिठाई के साथ बैठे उज्जैन के महापौर मुकेश टटवाल के जिस फोटो पर महाकाल भक्तों का तीसरा नेत्र खुला है, उसमें महापौर का होना महज़ संयोग भर है। वास्तव में बीते कोई पन्द्रह बरस से पूरी भाजपा ही महाकाल के आँगन में इसी ढिठाई से पसरी बैठी हुई है। एक तरफ़ महाकाल का जयकारा लगाकर ख़ुद को ज्ञात इतिहास का सबसे समर्पित भक्त साबित कर रही है और दूसरी तरफ मंदिर को मनमानी, भ्रष्टाचार और कमाई का अड्डा बना दिया है। जिसमें नाम महाकाल का, धन जनता का, प्रशासन मदारी का बंदर और भक्त भेड़-बकरी हैं। न मंदिर की गरिमा की परवाह है न ही महाकाल की एक झलक पाने को दूर-दूर से आने वाले दर्शनार्थियों के साथ होने वाली असुविधा, परेशानी, लूट और दुर्व्यवहार पर शर्म। गर्भगृह में महाकाल के समकक्ष विराजमान महापौर की आत्ममुग्ध धृष्ट-दर्शन यह बहुचर्चित छबि सत्ता के अहंकार में डूबे भाजपाइयों की समग्र करतूत की एक छबि पर है। 

बवाल मचने के बाद क्षमायाचना के साथ आई महापौर की सफ़ाई से व्यक्तिगत स्तर पर उनसे जाने-अनजाने हुई धृष्टता का प्रायश्चित भले हो जाए और आशुतोष करुनानिधान महाकाल उन्हें क्षमा कर दें मगर प्रदेश में साल 2003 के दिसम्बर बाद से आज तक भाजपा के शासन में महाकाल भक्तों की भावनाओं का जो चीरहरण हुआ है, उसे महाकाल कभी क्षमा न करेंगे। इस सबमें दर्शनार्थियों की जो फ़ज़ीहत हुई और हो रही है, उसे देख स्वयं महाकाल का मन भी आहत होगा। देवी सती की अग्निदग्धा प्राणहीन देह देखकर भी महाकाल उतने दुःखी और विचलित न हुए होंगे, जितने बीते डेढ़ दशक में अपने भक्तों की दुर्गति देखकर हो रहे होंगे।

इस पर भला किसे प्रमाण की आवश्यकता है कि तथाकथित विकास, सौंदर्यीकरण और दर्शनार्थियों को सुविधा के नाम पर भाजपा सरकार और उसके जिम्मेदार स्थानीय नुमाइंदों ने किस तरह मंदिर को बाजार बनाकर रख छोड़ा है। हर दूसरे दिन एक नई 'योजना', फिर फंड, फिर तोड़फोड़ औऱ फिर नवनिर्माण। निर्माण के बाद फिर तोड़फोड़, नया अधिग्रहण, नई योजना, संशोधन, सुधार, ठेका और फिर बदलाव। एक प्याऊ, एक सुविधाघर, एक प्रसाद काउंटर, दस दुकानें दो साल एक जगह रह जाए तो भाग्य। अन्यथा हर साल-दो-साल में नई योजना और नए बदलाव के तहत उनकी तोड़फोड़, स्थानांतरण ही मंदिर में विकास की परिभाषा बन चुका है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सब कमीशन के खेल की रेलमपेल है। वरना महाकाल मंदिर स्तर के सावर्जनिक उपासना स्थलों के विकास का अर्थ तो अगले कम से कम पचास बरस के हिसाब से किसी योजना का क्रियान्वयन है। ऋतुओं की भाँति वर्ष में छह बार परिवर्तन नहीं। पर महाकाल में तो यही हो रहा है!

अवंतिकानाथ की अवंतिकावासी प्रजा से पूछ लीजिए। जो लोग दस-पंद्रह बरस तक पहले प्रायः रोज़ महाकाल दर्शन या शिखर दर्शन के लिए सहजता-सुगमता से जाया करते थे, उन्होंने हद दर्ज़े की मनमानी, व्यवस्था की बदसलूकी और नित नए बदलाव के बाद मंदिर जाना ही छोड़ दिया है। वे अपने मन मंदिर में ही महाकाल की आराधना में रम गए हैं। बाहर से आने वाले भक्त किस तरह भस्मारती के नाम पर संगठित गिरोहों, जेबकतरों, जालसाज़ों और दुकानदारों की लूट के शिकार होते हैं, इनकी ख़बरों से बीते सालों के अखबारों की फाइलें भरी पड़ी हैं। इसमें मंदिर कर्मचारियों से पण्डों तक, होटल संचालकों से रिक्शा वालों तक, दुकानदारों से सुरक्षा कर्मियों तक सब शामिल हैं। यह सब मंदिर समिति, प्रशासन, शासन और जनप्रतिनिधियों की आँखों के सामने घटा है, घट रहा है। कई बार फ़ाश हुआ है, व्यवस्था की किरकिरी हुई है, कारवाई का ढोंग हुआ है, पर कीचड़ जस की तस है। उसे साफ़ करने की ज़हमत मानो कोई उठाना ही नहीं चाहता। कदाचित इसलिए कि कीचड़ में 'कमल' खिला रहे।

साल भर में मंदिर में करोड़ों का दान आता है लेकिन सफ़ाई, पानी, आवागमन, पूजा, दर्शन, एटीएम, प्रसाद, पार्किंग, भोजन, आपात चिकित्सा सहित इन और इस तरह की तमाम बुनियादी सुविधाओं के नाम पर केवल दिखावा है। हर मोर्चे पर दर्शनार्थी को मुर्गा समझकर उसे हलाल करने की टोह में महाकाल के स्वयंभू 'सेवक' मौजूद हैं। नेताओं की शह पर मंदिर के हर रास्ते पर गुमटियों की भरमार हैं और पैदल तक चलना मुहाल है। पार्किंग में लूट है, प्रसाद में मिलावट और बचीखुची हार-फूल वालों की दादागिरी। जिम्मेदारों ! ज़रा बाहर से आए किसी श्रद्धालु से एक बार पूछो तो उसका अनुभव क्या है? जवाब मिलेगा, 'भाई, दोबारा नहीं आएंगे। यदि यही विकास, सौदर्यीकरण और सुविधाओं का विस्तार का प्रत्युत्तर हैं तो इसका उत्तरदायी आख़िर कौन है?

साल 2016 के सिंहस्थ में महाकाल की शिप्रा के उद्धार के नाम पर पाँच-सात सौ करोड़ का जो नाश किया गया, उसका हाल शिप्रा का गंदा बदबूदार ठहरा हुआ पानी यत्र तत्र सर्वत्र स्वयं दिखा-सुना रहा है। हालिया 600 करोड़ के निर्माणाधीन बहुप्रचारित महाकाल कॉरिडोर में बड़ी-बड़ी लेकिन अनघड़ मूर्तियाँ तो जरूर तानी गई हैं किंतु दर्शनार्थियों के लिए बुनियादी सुविधाएँ कितनी और किस स्तर की हैं, इसका पर्दा जल्द ही गिर जाएगा। पुराण प्रसिद्ध महान और विस्तृत रुद्रसागर की समाधि पर महाकाल के नाम पर जनता के धन की इस मनमानी बर्बादी के लिए महाकाल निश्चित ही भविष्य में जिम्मेदारों का कर्मसम्मत न्याय करेंगे!

जिस तरह ज्योतिर्लिंग कालों के काल राजाधिराज महाकाल की विराट सत्ता का एक प्रतीक भर हैं, उसी प्रकार महापौर का गर्भगृह में महाकाल से सामीप्य प्रदर्शित कर स्व-दर्शन भी भाजपा के अतीतकालीन 'अपराधों' की एक झाँई मात्र है। वस्तुतः पार्श्व में दिखाई पड़ते तथाकथित स्वयंसिद्ध धर्मरक्षकों की शह पर यह महापौर की काया में भाजपा का ही 'कमल' सत्ता दर्प से दीप्त हो रहा है। 

वे समझ रहे हैं कि महाकाल की नज़र सामने हैं... मगर न भूले कि महाकाल एकानन ही नहीं, चतुरानन भी हैं और सबको सब जगह देख रहे हैं!

मेरे आग्रह पर आत्मीय मित्र पत्रकार विवेक चौरसिया ने इस घटना के परिपेक्ष्य में यह प्रतिक्रिया दी....

( फोन न 9826244500 )